
देशप्रेमी रहें या या राष्ट्रवादी बनें ?
30 अगस्त, 2016: – ये सोमवार को पायनियर के संपादकीय पेज पर छपा कंचन गुप्ता का लेख है।
जरा आप लोग भी गौर फरमाएं क्योंकि पांच कॉलम के इस लेख में सवा तीन कॉलम इजराइल के ऐतिहासिक महत्व की जगहों के जिक्र के साथ नाजियों के हाथों यहूदियों के जनसंहार की भयावहता के बारे में बताकर हमारी आपकी संवेदनशीलता को झकझोरने और हमको और आपको राष्ट्रवाद का सबक सिखाने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं।
अंतिम डेढ़ पौना पैरा नागरिकों को बचपन से ही राष्ट्रवाद की घुट्टी घोट घोटकर पिलाने के लिए इतिहास के सुनहरे पन्नों को सीने के कैनवास पर सजाने का आह्वान किया गया है। साथ ही उन्होंने अपने देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपना सब कुछ कुरबान करने के साथ देश के दुश्मनों के खिलाफ जंगजू जैसा जज्बा भरने की कोशिश की है।
अंतिम पैरा कुछ इस तरह है:
”भावनाएं भर कर एक देश को बनाया जा सकता है। मगर देश की उत्तरजीविता के लिए अपने राष्ट्रीय ध्येय के प्रति दृढ़ संकल्प और प्रतिबद्धता की जरूरत होती है। राष्ट्रीय ध्येय के प्रति इजराइल की इस प्रतिबद्धता में हम भारतीयों के सीखने के लिए सबक से ज्यादा कुछ है।”
अंतिम पंक्तियां हमें अपने देश को किससे बचाने का आवाहन करती नजर आ रही हैं?
हमारा सबसे बड़ा दुश्मन चीन कतई नहीं लगता है, क्याेंकि उसके खिलाफ तो नारे लग ही नहीं रहे हैं। नेपाल या बांग्लादेश या म्यांमार की गिनती ही नहीं है। तो फिर कौन?
तो हमें क्या सिर्फ पाकिस्तान के खिलाफ राष्ट्रवादी बनना है या फिर चीन, रूस, अमेरिका सबके खिलाफ भी नारा बुलंद करना है?
यहां बात अतीत पर गर्व करने तक सीमित नहीं रह गई है। दिक्कत तो उससे पैदा होने वाले गर्व के भाव पर खुद के सर्वश्रेष्ठ होने का अहसास करने और बुरी से बुरी स्थिति में खुद को नाजियों जैसी ही सर्वश्रेष्ठ नस्ल मानने लग जाने की है।
क्या मेरा यह कहना वैसा ही है जैसा कि लेख में राष्ट्रवाद के बारे में कहने की कोशिश की गई है?
और जहां तक देश प्रेम की बात है तो देशप्रेमी तो कमोबेश सभी हैं तो फिर राष्ट्रवाद का नारा क्यों?
हम हर वक्त अपने देशप्रेमी होने का नारा क्यों लगाते रहें?
अगर किसी को लगता है कि अपने देश की रक्षा के लिए हमें और हमारी पूरी कौम को लड़ाका बनने की जरूरत है तो मैं उनसे यह पूछना चाहूंगा जब हमने अपना शासन चलाने के लिए संसद बनाई है और अपने साथ अपने देश की रक्षा के लिए पुलिस, पैरामिलिट्री और मिलिट्री बनाई है तो फिर नागरिकों को क्यों जंगबाज बनाया जाए?
अगर सब कुछ नागरिकों को ही करना है तो उनकी बनाई संसद और उसकी बनाई संस्थाओं का क्या औचित्य?
और हाँ। इजराइल से भारत की तुलना क्यों की जाए जब दोनों और दोनों के ‘दुश्मन’ एक से नहीं हैं। आम की तुलना आम से होती है आलू और प्याज से नहीं।